Friday, June 29, 2007

पंद्रहवें अध्याय का माहात्म्य

श्रीमहादेवजी कहते है : पार्वती ! अब गीता के पंद्रहवे अध्याय का माहात्म्य सुनो । गौड़देश में कृपाण नरसिंह नामक एक राजा थे, जिनकी तलवार की धार से युद्ध में देवता भी परास्त हो जाते थे । उनका बुद्धिमान सेनापति शस्त्र और शास्त्र की कलाओं का भण्डार था । उसका नाम था सरभमेरुण्ड । उसकी भुजाओं में प्रचण्ड बल था । एक समय उस पापी ने राजकुमारों सहित महाराज का वध करके स्वयं ही राज्य करने का विचार किया । इस निश्चय के कुछ ही दिनों बाद वह हैजे का शिकार होकर मर गया । थोड़े समय में वह पापात्मा अपने पूर्वकर्म के कारण सिन्धुदेश में एक तेजस्वी घोड़ा हुआ । उसका पेट सटा हुआ था । घोड़े के लक्षणों का ठीक-ठीक ज्ञान रखनेवाले किसी वैश्य के पुत्र ने बहुत-सा मूल्य देकर उस अश्व को खरीद लिया और यत्न के साथ उसे राजधानी तक वह ले आया । वैश्यकुमार वह अश्व राजा को देने को लाया था । यद्यपि राजा उस वैश्यकुमार से परिचित थे, तथापि द्वारपाल ने जाकर उसके आगमन की सूचना दी । राजा ने पूछा : किस लिए आये हो ? तब उसने स्पष्ट शब्दों में उत्तर दिया : ‘देव ! सिन्धु देश में एक उत्तम लक्षणों से सम्पन्न अश्व था, जिसे तीनों लोकों का एक रत्न समझकर मैंने बहुत-सा मूल्य देकर खरीद लिया है ।’ राजा ने आज्ञा दी : ‘उस अश्व को यहाँ ले आओ ।‘
वास्तव में वह घोड़ा गुणों में उच्चै:श्रवा के समान था । सुन्दर रुप का तो मानो घर ही था । शुभ लक्षणों का समुद्र जान पड़ता था । वैश्य घोड़ा ले आया और राजा ने उसे देखा । अश्व का लक्षण जाननेवाले अमात्यों ने इसकी बड़ी प्रशंसा की । सुनकर राजा अपार आनन्द में निमग्न हो गये और उन्होंने वैश्य को मुँहमाँगा सुवर्ण देकर तुरंत ही उस अश्व को खरीद लिया । कुछ दिनों के बाद एक समय राजा शिकार खेलने के लिए उत्सुक हो उसी घोड़े पर चढ़कर वन में गये । वहाँ मृगों के पीछे इन्होंने अपना घोड़ा बढ़ाया । पीछे-पीछे सब ओर से दौड़कर आते हुए समस्त सैनिकों का साथ छूट गया । वें हिरणों द्वारा आकृष्ट होकर बहुत दूर निकल गये । प्यास ने उन्हें व्याकुल कर दिया । तब वे घोड़े से उतरकर जल की खोज करने लगे । घोड़े को तो उन्होंने वृक्ष के तने में बाँध दीया और स्वयं एक चट्टान पर चढ़नें लगे कुछ दुर जाने पर उन्होंने देखा कि एक पत्ते का टुकड़ा हवा से उड़कर शिलाखण्ड पर गिरा है । उसमें गीता के पंद्रहवें अध्याय का आधा श्लोक लिखा हुआ था । राजा उसे बाँचने लगे । उनके मुख से गीता के अक्षर सुनकर घोड़ा तुरंत गिर पड़ा और अश्व-शरीर को छोड़कर तुरंत ही दिव्य विमान पर बैठकर वह स्वर्गलोक को चला गया । तत्पश्चात् राजा ने पहाड़ पर चड़कर एक उत्तम आश्रम देखा, जहाँ नागकेशर, केले, आम और नारियल के वृक्ष लहरा रहे थे । आश्रम के भीतर एक ब्राह्मण बैठे हुए थे, जो संसार की वासनाओं से मुक्त थे । राजा ने उन्हें प्रणाम करके बड़ी भक्ति के साथ पूछा: ब्रह्मन् ! मेरा अश्व जो अभी- अभी स्वर्ग को चला गया है, उसमें क्या कारण है ?’
राजा की बात सुनकर त्रिकालदर्शी, मंत्रवेत्ता एवं महापुरुषों में श्रेष्ठ विष्णुशर्मा नामक ब्राह्मण ने कहा: राजन् ! पूर्वकाल में तुम्हारे यहाँ जो ‘सरभमेरुण्ड’ नामक सेनापति था, वह तुम्हें पुत्रों सहित मारकर स्वयं राज्य हड़प लेने को तैयार था । इसी बीच में हैजे का शिकार होकर वह मृत्यु को प्राप्त हो गया । उसके बाद वह उसी पाप से घोड़ा हुआ था । यहाँ कहीं गीता के पंद्रहवें अध्याय का आधा श्लोक लिखा मिल गया था, उसे ही तुम बाँचने लगे । उसीको तुम्हारे मुख से सुनकर वह अश्व स्वर्ग को प्राप्त हुआ है ।
तदनन्तर राजा के पार्शववर्ती सैनिक उन्हें ढूँढ़ते हुए वहाँ आ पहुँचे । उन सबके साथ ब्राह्मण को प्रणाम करके राजा प्रसन्नतापूर्वक वहाँसे चले और गीता के पंद्रहवें अध्याय के श्लोकाक्षरों से अंकित उसी पत्र को बाँच-बाँचकर प्रसन्न होने लगे । उनके नेत्र हर्ष से खिल उठे थे । घर आकर उन्होंने मंत्रवेत्ता मन्त्रियों के साथ अपने पुत्र सिंहबल को राज्यसिंहासन पर अभिषिक्त किया और स्वयं पंद्रहवें अध्याय के जप से विशुद्धचित्त होकर मोक्ष प्राप्त कर लिया ।

पंद्रहवाँ अध्याय : पुरुषोत्तमयोग
चौदहवें अध्याय में श्लोक ५ से १९ तक तीनो गुणों का स्वरुप, उनके कार्य उनका बंधनस्वरुप और बंधे हुए मनुष्य की उत्तम, मध्यम आदि गतियों का विस्तारपुर्वक वर्णन किया । श्लोक १९ तथा २० में उन गुणों से रहित होकर भगवदभाव को पाने का उपाय और फल बताया । फिर अर्जुन के पूछने सें २२ वें श्लोक से लेकर २५ वे श्लोक तक गुणातीत पुरुष के लक्षणों एवं आचरण का वर्णन किया । २६ वें श्लोक में सगुण परमेश्वर को अनन्य भक्तियोग तथा गुणातीत होकर ब्रह्मप्राप्ति का पात्र बनने का सरल उपाय बताया।
अब वह भक्तियोगरुप अनन्य प्रेम उत्पन्न करने के उद्धेश्य से सगुण परमेश्वर के गुण, प्रभाव और स्वरुप का तथा गुणातीत होने में मुख्य साधन वैराग्य और भगवदशरण का वर्णन करने के लिए पंद्रहवाँ अध्याय शुरु करते हैं । इसमें प्रथम संसार से वैराग्य पैदा करने हेतु भगवान तीन श्लोक द्वारा वृक्ष के रुप में संसार का वर्णन करके वैराग्यरुप शस्त्र द्वारा उसे काट डालने को कहते है ।

ये उपयोगी संस्करण भूपेंद्र वर्श्नेय द्वारा दिया गया है, जिसका विस्तृत इस लिंक (यहाँ क्लिक करें) देखा जा सकता है..धन्यवाद भूपेंद्र।

Friday, April 13, 2007

स्त्रोत

वार्ष्णेय शब्द का पहला ज्ञात प्रयोग महाभारत/गीतोपदेश में किया गया जब अर्जुन नें श्री कृष्ण को "वार्ष्णेय" कह कर संबोधित किया । वार्ष्णेय श्री अक्रुर जीं महाराज के वंशज हैं । वार्ष्णेय मुख्यतः पश्चिमी उत्तर प्रदेश के रहने वाले व्यापारी वर्ग हैं।

Thursday, March 22, 2007

**वार्ष्णेय पत्रिका**

क्षेत्र आगरा से वार्श्नेय परिवार , प्रवासी और अप्रवासी बारह्सैनी सदस्यों को इस नये प्रयोग में सम्मलित होने का आमंत्रण देते है , और विश्वास करते है कि ये प्रयोग एक अच्छे और उपयोगी संचार माध्यम का रूप ले ले। आप अपने सुझाव और समाचार दिये हुये मेल पर भेज दें । सभी उचित और सम्बंधित पत्रों को इस वेबपेज में प्रसारित किया जाएगा।

शुभेच्छा में,

अनुज वार्ष्णेय
पुत्र- ह प्र वार्ष्णेय

अहमदाबाद

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